Saturday, September 17, 2011

Taliban-Army soldier debate

At the Internet Archive, archive.org, someone deposited an audio recording that purports to a debate between an army soldier and a Taliban.   This is an attempted transcript of that recording.  Unfortunately only the recording is available, with no context, when, where, who, etc.  Also, the recording evidently starts in the middle of the debate.


फ़ौजी- क्या जब मस्ज़िद-ए-ज़रार[1] को हज़ूर-ए-पाक ने जलाया था, तो उस मस्ज़िद-ए-ज़रार के अन्दर मुनाफ़िकीन मौज़ूद थे, या ख़ाली मस्ज़िद को आग लगाई थी?


तालिबान- मैंने तो जवाब दिया था शायद आप समझना नहीं चाह रहे थे.


फ़ौजी- नहीं अभी मुझे दुबारा समझाएँ आप कि क्या मस्ज़िद-ए-ज़रार को आग लगाते वक्त अन्दर मुनाफ़िकीन (hypocrites) मौज़ूद थे या नहीं; आप मुझे हाँ या ना में जवाब दे दें?


तालिबान- नहीं थे, नहीं थे.


फ़ौजी- तो जब आप आग लगा रहे हैं तो उस में क्या लोग मौज़ूद होते हैं?


तालिबान- तो हमने इसीलिए पहली दलील ये बयान की है कि "फ़हीम कातिलुकुम फ़क्तुलुहुम" अगर मस्ज़िद के अन्दर वो तुम से लड़ें तो तुम भी उन्हें क़तल करो.


फ़ौजी- आप बात पूरी बताएँ कि इस में लफ्ज़ काफ़िर का ज़िक्र था, कुरान में लफ्ज़ काफ़िर आया है, मुनाफ़िक़ नहीं है. यही बात है?


तालिबान- बिलकुल ! मैंने आपसे पहले भी ये अर्ज़ किया था कि मस्ज़िद-ए-ज़रार का मसला हमने बहुतोरे ताईद ज़िक्र किया है कि अगर मस्ज़िद में हो और मस्ज़िद को नुक्सान पहुंचें तब भी यह जायज़ है, वरना वो दलील खुद काफ़ी है. "वला-तु-कातिलु-कु-मेंडल-मस्ज़िद-इल-हराम" - मस्ज़िद-इ-हराम में तुम लोग क़तल मत करो, "हत्तायो-कातिल-कुम-फ़ी" - हत्ता के वो खुद तुम्हारे ख़िलाफ क़तल करें, तो यह तो ज़ाहिर सी दलील है इस में, ज़्यादा बातों की तो ज़रुरत नहीं है.


फ़ौजी- मैं यह पूछ रहा हूँ कि उस में ज़िक्र है कुरान में कि काफ़िर तुम्हारे साथ करें, उसमे अभी आप लोग हमें काफ़िर समझ रहे हैं?


तालिबान- इस में कोई शक आप को क्यों है?


फ़ौजी: अच्छा, हज़ूर-पाक ने एक जंग में एक साथी ने बताया रासूल-ए-पाक सलल्लाहू अलेही वसलम (sallallahu alayhi wa salaam) कि ये काफ़िर डर के मरे कलमा पढ़ रहा था तो उसको मैंने क़तल कर दिया. हज़ूर-पाक ने कहा कि क्या तुमने उसका दिल चीर के देखा था कि वो काफ़िर था या मुसलमान था. ले,मैं आप के सामने कलमा पढ़ता हूँ ला इलाहा इलल्लाह मुहम्मद रसूल्लाह. अब मैं काफ़िर नहीं हो सकता, मुनाफ़िक़ हो सकता हूँ काफ़िर नहीं हो सकता. अभी आपका मेरा सब्र(?) वाजिब है?


तालिबान- हम आप लोगों को मुर्तद (apostate) समझते हैं. मुर्तद उन लोगों को कहा जाता है जो कलमा पढ़ते हैं, लेकिन इस्लाम से वो फ़िर गए हैं. और आप के जो तामाल (ताम्मुल (deliberation)??) हैं ये इस्लाम से फ़िरे हुए लोगों के आमाल (doings) हैं. शरीअत का मज़ाक आप लोग उड़ाते हैं और मुसलमानों को आप लोग क़तल करते हैं. मुसलमानों को क़तल करने के लिए कुफ़ार से इम्दाद लेते हैं. ये तमाम चीजें वो चीजें हैं जो कि कबीरा (major) गुनाह नहीं हैं, बल्कि इनका सिर्फ़ इर्तिकाब करना (commission) ही इंसान को इस्लाम से निकाल कर कुफ़्र के दायरे में दाख़िल कर देता है.


फ़ौजी- आप मुझे ये बताएं कि जब अफ़ग़ानिस्तान के जंग ग्यारह साल आप ने लड़ी है और यहूदी और इसाई के पैसों से, अमरीका के पैसों से. आप लोग पैसें लें तो वो जायज़ हो जाता है, कोई और ले तो वो क़तल का मुर्तकिब(guilty) वो वाजिब-उल-क़तल हो जाता है. और लोग ... जायज़ कहाँ हो सकता है?


तालिबान- काफ़िरों से इम्दाद लेने का जो मसला है, ये एक इख्तिलाफ़ी (~contentious) मसला है, कि काफ़िर से काफ़िर के ख़िलाफ़ इम्दाद लेने का क्या हुकम है? काफ़िर से इम्दाद लेकर मुसलामानों को क़तल करने का मसला बिलकुल मुताफ़क-अलेई (“muttafaq `alayh” literally means “agreed upon” [2]) कि जो कोई भी किसी काफ़िर से इम्दाद ले और मुसलमान को क़तल करे, वो मुर्तद हो जाता है, शेख़-उल-इस्लाम सय्यद होस्सैन अहमद मदनी रहिमुलाह का फ़तावा इस सिलसिले मे मौजूद है और इससे पहले जो उलेमा गुज़रे हैं, उन सब के फ़तावा इस सिलसिले मे मौजूद हैं. मुफ़्ति निज़ामुद्दीन शमसे रहिमुलाह जिनको आप लोगों ने शहीद किया है, उनका फ़तावा भी मौजूद है, और लाल मस्ज़िद वालों का फ़तावा भी इस सिलसिले मे मौजूद है. अगर उलेमा के फ़तावा आप के लिए काफ़ी न हों तो और कोई हम तरीका आप के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकते.


फ़ौजी- बहुत अच्छा! जो मौलाना हज़रात आपके हक़ में फ़तावा दे वो बिलकुल ठीक हैं, मौलाना असंजान को आप क़तल करते हैं क्योंकि आपके ख़िलाफ़ फ़तावा दिया था. मौलाना अब्बास नैमी लाहौर-वाला आप कतल करते हैं, उन्होंने आपके ख़िलाफ़ फ़तावा दिया था. और तो इमामे-काबा का फ़तावा है, आप इमामे-काबा को न {sic} मानने से इनकार करें, तो फिर हम दुआ ही कर सकते हैं कि अल्लाह आपके आँखें खोलें. इमामे-काबा ने अभी फ़तावा दिया है कि ख़ुदकुश हमले इस्लाम सक्त मना और सक्त हराम हैं. इमामे-काबा का फ़तावा अब आप इसको भी नहीं मानेंगे?


तालिबान- बिलकुल. हम इमामे-काबा को गुमराह समझते हैं, उसे हम दरबारी मुल्लाह समझते हैं, और उसे हम ताऊत (taghut, idolatry) का नौकर समझते हैं और जिन हज़रात के नाम आपने लिए हैं, उन में अब्बास नैमी है, पता नहीं कौनसा नैमी है? इसके क़तल की हम ज़िम्मेदारी कबूल करते हैं और इस तरह आहिंदा जो लोग होंगे उनको भी हम इन्शालाह क़तल करेंगे. रह गए हसन जान साहब उनके क़तल का हमें इल्म नहीं है, कि आपने क़तल किया है उसे, तो उसके आप ख़ुद ज़िम्मेदारी कबूल करें. लेकिन जो कोई भी तहरीक-ए-तालिबान और तालिबान की मौकिफ़ (position) का मुख़ालफ़त (opposition) करेगा हम उसे क़तल करेंगे, और हम इसे जिहाद समझते हैं. असल में, आप मेरी बात समझना नहीं चाहते इसीलिए कि मैं आपको ये कह रहा हूँ, कि काफ़िर से काफ़िर के ख़िलाफ़ इम्दाद लेना, ये इख्तिलाफ़ी मसला है. जैसे कि हमारे मुजाहिदीन ने रूस के ख़िलाफ़ अमरीका से इम्दाद ली थी या तो, या I.S.I. वगैरह से इम्दाद ली थी. लेकिन आप लोगों ने जो इम्दाद अमरीका से लेनी शुरू की है, और मुसल्सल (continuously) दस साल से आप इम्दाद ले रहे हैं, ये मुसलामानों के क़तल के लिए है, ये बिलकुल कुफ़्र है, ये बिलकुल इर्तिदाद (apostasy) है, इसमें कोई शक-शुबहा नहीं, चाहे तो समझो, चाहे तो न समझो. न समझने वालों के लिया अल्हम्दुलिलाह हमने इंतज़ाम किया हुआ है, और मुतमइन रहो (remain satisfied) अगर अल्लाह का कुरान तुम्हारे लिए खाफ़ी नहीं है, और अल्लाह आपके रसूल के हदीस तुम्हारे लिए खाफ़ी नहीं है, तो उसका इंतज़ाम हमने किया हुआ है, अल्हम्दुलिलाह!


फ़ौजी- अच्छा, आप यह कहते हैं कि जो भी आप से इख्तिलाफ़ करेगा, उसको आप कतल कर देंगे, जब कि नदीपार(?) की हदीस है जो (...) मना किया किसी के झूटे ख़ुदा को भी बुरा-भला मत कहो, ऐसा न हो कि वो तुम्हारे सच्चे ख़ुदा को बुरा-भला कहें, पहली हदीस. दुसरे हदीस में हज़ूरे-पाक ने ख़ालिद-बिन-वलीद एक क़बीले की तरफ़ इस्लाम की दावत के लिए भेजा. वहाँ पे जाकर ख़ालिद-बिन-वलीद ने जब उनको इस्लाम की दावत दी, तो वह सही से नहीं कह सके कि हम इस्लाम कबूल किया हमने. ग़लत फ़ेमी में ख़ालिद-बिन-वलीद ने उनको क़तल करना शुरू कर दिया. जब हज़ूर-पाक पर यह पैग़ाम पहुंचा कि ख़ालिद ने उन क़बीले के लोगों को क़तल किया है क्योंकि वो कलमा नहीं पढ़ रहे थे, तो हुज़ूर-पाक रोते हुए, आँखों में आँसू लेके खुले आसमान के नीचे आये, हाथ आसमान की तरफ़ बुलंद करके आपने दुआ फ़रमाई कि या अल्लाह! तू जानता है कि में मुहम्मद इस अमल से बलि(?) हूँ, यह मेरा अमल नहीं, यह ख़ालिद का ज़ाती अमल है, और मेरा इसमें कोई अमल-दख़ल नहीं है, मैंने इस तरह का कोई हुक्म नहीं दिया था कि कोई कलमा न पढ़े तो उसको क़तल करो. फिर आपने एक और साथी को भेजकर ख़ून-बहादात (blood money) किया उन लोगों का जिनको क़तल किया गया था. इस हदीस से यह बात वाजिब है कि वह कलमा न भी पढ़े तब भी उनका क़तल वाजिब नहीं है. आप तो उनको क़तल कर रहे हो जो कलमा पढ़-पढ़के आप को बता रहे हैं कि हम मुसलमान हैं, आप लोग फिर भी उनको क़तल कर रहे हो. तो आप तो गुमराही की मैं कहता हूँ सबसे गन्दी जगह में बैटे हुए हो.


तालिबान- जो दलीलें आप मुझे इस वक्त मुझे बयान कर रहे हैं ये कुफ़ार के लिए है! ख़ालिद-बिन-वलीद रज़िया-अल्लाहो-अंहो (radiya Allaho 'anho - may God be pleased with him) का जो वाक़यात मुझे बयान कर रहे हैं, इसमें तो यही दलील है कि वह जानते नहीं थे कि इस्लाम के लिए उन्होंने कौनसा लफ्ज़ इस्तेमाल करना है. जब कि आप लोगों की तो पूरी उम्र मुसलामानों के साथ गुज़री है. पूरी उम्र तुम लोग मुसलामानों को यह धोखा देते रहे हो कि हम मुसलमान हैं. आप लोग तो अच्छी तरह जानते हो इन बातों को. शरीअत को जानते-भूजते हुए शरीअत का मज़ाक उड़ा रहे हो! और शरीअत को पामाल(?) कर रहे हो, तो कहाँ ये ख़ालिद-बिन-वलीद रज़िया-अल्लाहो-अंहो के वाक़यात को आप बतोरे दलील पेश करते हो? वह तो वह लोग जोकि "असलमतु" की जगह में "सबात्हू" कहते थे. वो तो इस लिए कहते थे कि वो समझते नहीं थे इस बात को. लेकिन तुम लोग तो इन बातों को समझते हो. कलमा पढ़ते हो तो कलमे पर अमल भी करना चाहिए. और रही यह बात कि "वला तासुबुलादीन या दुहुनुम इन्दुइनल्ल फ़यासबुल्लाह हदू-ऍम-बिगै रहिल्म" यहाँ पर ये बात इसीलिए कही जा रही है कि वो लोग दुश्मनी करके तुम्हारे, तुम्हारे अल्लाह को गाली देंगे. और तो तुम तो मुश्रिकीन(polytheist) नहीं हो! जिन को यह मालूम नहीं है कि दुश्मनी करके तुम बगैर इल्म के अल्लाह को गालियाँ दोगे, तुम्हे तो ये सब कुछ मालूम है. तुम क्यों आख़िर उन असली काफ़िरों के दलाइल को अपने ऊपर ख़ुद-ब-ख़ुद fit करते जा रहे हो. यह तो तुम्हारी अपनी ग़लती, अपनी ग़लती है कि तुम अपने आप को असली काफ़िर समझने लगे हो. हम तुम्हे यह कहते हैं कि तुम मुसलमानों के बच्चे हो, मुसलमानों के घरों में पैदा हुए हो, लेकिन अपने आमाल की वजह से मुर्तद हो चुके हो. बस हमारी दरख़ास्त यही है. अब रही बात तुम हमें कभी गुमराह कहो, कुछ भी कहो, हमें इन बातों की कोई परवाह नहीं है.


फ़ौजी- तो में आपसे यह पूछता हूँ कि जो बन्दा दिन्र(??) मैं तो कलमा पढ़ रहा हूँ आपके सामने - ला इलाहा इलल्लाह मुहम्मद रसूल अल्लाह - जो कलमा पढ़े लेकिन दिल से न माने उसको मुर्तद नहीं कहते. यह आपको भी पता, आप गुमराह की कोशिश मत कर दुसरे को, उसको मुनाफ़िक़ कहते हैं, ठीक है? उसको मुर्तद नहीं, मुर्तद उसको कहते हैं जो कि कलमा पढ़ने के बाद दुबारा यह कहे है कि मेरा ईमान नहीं अल्लाह पे, मेरा ईमान नहीं है रसूल पे, उसको मुर्तद कहते हैं. जो शख्स कलमा पढ़के उसपे अमल न करे, उसको मुनाफ़िक कहते हैं, उसको मुर्तद नहीं कहते, नंबर एक. हम कलमा पढ़ते हैं - ला इलाहा इलल्लाह मुहम्मद रसूल अल्लाह - मैं ... पढ़ रहा हूँ.


अब आप मुझे ये बतायें कि नबी (???)सलल्लाहू अलेही वसलम ने अपनी पूरी ज़िन्दगी में किसी एक शख्स को यह कहके क़तल किया कि यह शख्स मुनाफ़िक है?


तालिबान - आप बात को समझने की कोशिश करें. हमने आपको यह साफ़ कहा है कि हम आपको मुनाफ़िक नहीं कहते हैं, हम आपको मुर्तद कहते हैं. मुनाफ़िक के क़तल के सिलसिले में इंशाल्लाह कल के मज्लिस में हम बात करेंगे कि मुनाफ़िक को क़तल करना मुबाह [3] और जायज़ है, वाजिब नहीं है. इसलिए रसूल-अल्लाह सलल्लाहू अलेही वसलम हदीस में इर्शाद फ़रमाते हैं कि अगर लोग यह न कहते कि मुहम्मद अपने साथियों को क़तल करता है तो मैं मुनाफ़िकीन को ज़रूर क़तल करता, लेकिन लोग यह कहेंगे कि मुहम्मद अपने साथियों को क़तल करता है, इसीलिए मैं मुनाफ़िकीन को क़तल नहीं करता. इस से यह बात साबित होती है कि मुनाफ़िकीन को क़तल करना जायज़ है, वाजिब नहीं है. बस यही फ़रक है जिसे आप नहीं समझ रहे हैं.

और दूसरी बात जो आप यह कह रहे हैं कि मुनाफ़िक वह इस तरह होता है, मुर्तद वह इस तरह होता है, गुज़ारिश यह है कि मुर्तद होने के लिए कलमा पढ़कर फिर उसका इनकार करना ज़ुबान के साथ ज़रूरी नहीं है बल्कि बाज़ आमाल ऐसे हैं जिनके करने से आदमी ईमान से निकल जाता है, जैसे कुरान का मज़ाक उड़ाना, जैसे शरीअत का मज़ाक उड़ाना, और जैसे ?तफ़कालय? मसाइल का मज़ाक उड़ाना, शरिअत के नफ़ज़(?) (enforcement) में रुकावट डालना, और कुरान-इ-करीम को नजासत (dirt) फेंक देना, अल्लाह-जला-जलुहू के नाम की बेहुरमती (disgrace) करना, यह ऐसे तमाम चीज़े इस तरह की हैं कि जिनके करने से आदमी ख़ुद-ब-खुद इस्लाम से निकल जाता है. और मैं कई बार कह चुका हूँ कि उलेमा ने फ़तावे दिए हैं इस सिलसिले में कि अगर कोई मुसलमान किसी काफ़िर से इम्दाद ले, कल किसी मुसलमान को कतल करे, उसका ये आमल ही उसके काफ़िर होने के लिए काफी हो जाता है. सिर्फ "ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मद रासुल्लाह" के अलफ़ाज़ इस्तेमाल काफी नहीं है.



फ़ौजी- मुसलामानों को तो आप लोग कतल कर रहे हैं, अब ख़ुदा आपकी आँखें खोलें तो खोल सकें अभी आप की आँखें पता नहीं कब खुलेंगी. मार्केटों (markets) में धमाका करना औरतों ....


तालिबान- मार्केटों के धमाके की बात दुबारा मत करो, यह तो तुम ख़ुद करते हो. ब्लेकवाटर (Blackwater) तो तुम्हारे अपने लोग हैं और तुम उनकी ग़ुलामी करते हो. तो जो बात सबूत तुम्हारे पास न हो तो उसे बात न करो,ना . जो बात तुम समझा सकते हो, साबित कर सकते हो, उसे बताओ.


फ़ौजी- आपने अभी तक कितने अमरीकी मरे हैं पाकिस्तान में और कितने मुसलमान मरे हैं, यह मुझे बता दें नंबर एक. टीक है. कितने अमरीकी अभी तक मारे हैं आपने?


तालिबान- हम जो तुम लोगों मारते हैं, तुम्हे भी अमरीकी की निय्यत करके मारते हैं. हाँ यह फ़रक है कि अमरीकियों की तनख्वाह जो है अस्सी हज़ार डालर (dollars) महाना, और तुम लोग जो हो तीन सौ डालर में फ़रोख्त होते हो, बस इतना फ़रक है वरना हम तुम्हें और अमरीकियों में को फ़रक नहीं करते. इसीलिए कि आज के बयान में हमने यह कहा है, कि हमारी जंग अहले-किताब से यहाँ पर भी है, वहाँ पर भी है. बस इतना फ़रक है कि उनके खादिमों और ग़ुलामों से हमारी जंग यहाँ भी हो रही वहाँ भी हो रही है.


फ़ौजी- मुफ़्ती साहेब!


तालिबान- ??बोर्वी??


फ़ौजी- जवाब दें इसका.


तालिबान- हाँ, जवाब मैंने दिया है न, हम तुम्हे भी अमरीकी समझ कर मारते हैं.


फ़ौजी- अब पूछ रहाँ हूँ कि ज़िया-उल-हक के दौर में भी इस मुल्क में शरिअत ?नफ़ज़? नहीं थी. उस दौर में आपको जिहाद का ख़याल नहीं आया? उस दौर में आप हुकुमत से पैसे ले रहे थे रूस के तरफ़ हमला रहे थे. उस दौर आप अम्रीका से भी पैसे ले रहे थे और हम्हें जिन्हें आप मुशरिकीन कहते हैं से भी पैसे ले रहे थे, क्या वो पैसा आप पे जायज़ था?


तालिबान- हम पहले कई बार अर्ज़ कर चुके हैं लेकिन समझना तुम चाहते नहीं हो तो क्या करें तुम्हारे साथ? इसीलिए तो हम जिहाद के लिए खड़े हुए हैं, ना? कि जिनके दिमागों को अल्लाह की किताब नहीं खुल सकी है, अल्लाह के रसूल की हदीसे नहीं की है, इसीलिए हमने यह हम ने यह असलिहा (weapons of war) उठाया है ताकि उन दिमागों के हम खोलें. रही यह बात कि हमने अगर ज़िया-उल-हक के ज़माने में जिहाद नहीं किया है, तो वह तो हमारा गुनाह है! हमने तो पहले यह कहा है कि उन्नीस सौ सैंतालीस में हम पर जिहाद पर ?ज़हन? हो चुका था. अगर हमने पहले गुनाह किया है तो उसका यह मतलब तो यह नहीं है कि हम गुनाह करते ही रहें? और गुनाह करते ही रहें? अगर हमने पहले हमारे बुज़र्गों ने ग़लती की है और वो I.S.I. से इम्दाद लेते रहे हैं, और उनसे ग़लती हुई है, यह मतलब नहीं कि हम अपनी ग़लती पे इस्रार ही करते रहें? यह तुम लोगों कि आदत कि अपनी ग़लती पर इस्रार करते हो. तुमने यह कहा था कि अम्रीका से हम पैसे ले रहें हैं, यह बुरी बात है! बुरी बात है तो छोड़ दो!


फ़ौजी- हम पैसे नहीं ले रहे, पैसे तो आप लोग ले रहे हो. मुझे अगला सवाल का...


तालिबान- तो कौन पैसा ले रहा है?


फ़ौजी- तो आप कहते कि बाजारों में और औरतों में...


तालिबान- नहीं! बात सुनो, बात सुनो, बात सुनो! इदर-उदर नहीं करो! पैसे कौन ले रहा है?


फ़ौजी- मुझे आप मेरी ???? सवाल का जवाब दें, मैं कह रहा हूँ कि आप कहते हैं लाहौर में मून मार्केट (Moon Market) -


तालिबान- नहीं, नहीं. बात जो है अफ़लाक(?) के साथ होगी, धरती (?) के साथ होगी, ऐसा नहीं है. इस तरह आगे बढ़ने की कोशिश मत करो. अम्रीका से पैसे कौन ले रहा है, यह बताओ!


फ़ौजी- आप ने अमरीका से पैसे लिए हैं कि नहीं लिए? आप ने लिए कि नहीं लिए, यह बता दें, चलें.


तालिबान- चलो मैंने बता दिया कि हमने पहले अम्रीका से पैसे लिए हैं, रूस के दौर में. अब तुम यह बताओ कि तुम लोग लेते हो या नहीं?


फ़ौजी- हम पैसे नहीं लेते जो लेते हैं, वह कोई और लेते हैं. हम अपनी तनख्वाह जो लेते हैं जो हमारे लिए हलाल है, ठीक है?


तालिबान- अच्छा, यही बात हम भी कहते हैं ना? कि तुम लोगों को आगे ला कर इस्तेमाल किया जाता है जिस तरह कि टिशु पेपर (tissue paper) को इस्तेमाल किया जाता है. वरना, पैसे तो अमरीकी फ़ौज को एक महीने में अस्सी हज़ार डालर (dollar) दिए जाते हैं, तुम लोग को तीन सौ डालर (dollar) दिए जाते हैं. बहुत अच्छी हलाल तनख्वा है, मुबारक हो तुम्हे!


फ़ौजी- अच्छा मुझे मैं कह रहा हूँ कि तनख्वा हम लेते हैं चलो आप ने कह दिया कि तनख्वा हलाल नहीं है जब कि हम ऐसा नहीं समझते हैं, अल्लाह का शुक्र है, हलाल तनख्वा है. आप मुझे एक दफ़ा यह कह दे, सब लोग सुन रहे होंगे, आप लोग (open?) कह दें, कि हाँ, हमसे ग़लती हुई, अफ़गानिस्तान में जो जंग लड़ी गयी, ग्यारह साल हमारे जो बाप-दादा थे, या जो भी कि हमारे बड़े भाई थे या हम लोग थे, वो हराम की जंग थी, नंबर एक.


नंबर दो आप यह कह दें कि जो औरतों और बच्चों पर ख़ुदकुश हमले करते हैं, मैं उनपे लानत भेजता हूँ, हम उनका हिस्सा नहीं हैं, अल्लाह उनको सज़ा दें इस बात की, और मैं उनपे लानत भेजता हूँ. क्या कहना है सबके सामने?


तालिबान- अच्छा, यह सुनो. मैं कई बार यह कह चुका हूँ कि काफ़िर से इम्दाद लेना काफ़िर के ख़िलाफ़, यह एक इख्तिलाफ़ी मसला है. इस मसाले को मैं बयान करता हूँ. मसला यह है कि अगर काफ़िर से इम्दाद लिया जाए और इस में यह शुब्ह हो कि मुल्क फ़तह होने के बाद काफिरों का कानून ग़ालिब आ जायेगा तो यह इम्दाद जयिज़ नहीं है. लेकिन अगर काफिरों से इम्दाद ली जा रही हो और यह शुब्ह न हो कि काफिरों से इम्दाद लेने के बाद और मुल्क फ़तह होने के बाद काफिरों का कानून ग़ालिब नहीं आयेगा तो इम्दाद लेना जयिज़ है और इस पर उलेमा के फ़तावा मौजूद हैं और रासुल्लुलाह-सलालाहू-वालिहू-वसल्लम की सीरत में दोनो तरह की बातें मौजूद हैं. रासुल्लुलाह-सलालाहू-वालिहू-वसल्लम ने एक दफ़ा जंग में जाते हुए एक मज़बूत और ताकतवर मुश्रिक को देखा. तो उस मुश्रिक ने कहा, कि मैं आप के साथ चला जाऊँ, तो आप ने फ़रमाया "लन-अस्तायीं-बि-मुश्रिकिन", कि मैं मुश्रिक से हरगिज़ इम्दाद नहीं लूँगा, लेकिन फ़तह-ए-मक्का के मौके पर आप ने सफ्वान-बिन-उम्मया, जो कि उस वक्त मुसलमान नहीं हुए थे, उनसे इम्दाद ली थी. अब, चूँकि दोनो तरफ़ की हदीसें मौजूद हैं - यानि काफ़िर के ख़िलाफ़ काफ़िर से इम्दाद लेने की - हदीसें जवाज़ में भी मौजूद हैं और अदमे-जवाज़ में भी मौजूद हैं. इस लिए उलेमा किराम यह फ़रमाते हैं कि जो आपने मुश्रिक से इम्दाद न लेने का फ़ैसला किया था उस वक्त मुसलमान कमज़ोर थे, ग़ालिबन यह जंग-ए-उहुद का वाक्या है, लेकिन फ़तह-ए-मक्का के वक्त आप सलालाहू-वालिहू-वसल्लम ताकतवर थे, उस वक्त यह शुब्ह नहीं था कि कुफ़ार से इम्दाद लेने से मुसलामानों के कानून को कोई नुकसान पहुंचेगा. इसलिए शरिअत में फ़तवा यह है, कि अगर कुफ़ार से कुफ़ार के ख़िलाफ़ इम्दाद लेने से इस्लाम को और शरिअत को नुकसान न पहुंचे तो ऐसी इम्दाद लेना जयिज़ है, लेकिन अगर नुकसान पहुंचे तो ऐसी इम्दाद लेना जयिज़ नहीं है, और हम यह समझते हैं कि हमारे (?अकाबिरिन?) और बुज़र्गों ने उस वक्त यही फ़ैसला किया था कि अमरीका से इम्दाद लेने में और काफ़िरों से काफ़िर के ख़िलाफ़ इम्दाद लेने में नुकसान नहीं पहुंचेगा, इसलिए उन्होंने इस अमल को इख्तियार किया था, इसीलिए हम उनके अमल को सही समझते हैं. लेकिन कुफ़ार से मुसलामानों के ख़िलाफ़ इम्दाद लेने के अमल को कोई भी समझता, यह तो सिर्फ़ आप लोगों का अमल है.


फ़ौजी- मैं यह पूछ रहा हूँ कि उस वक्त भी पकिस्तान में शरिअत नाफ़िज़ नहीं थी आप के बकौल(?) और भी नहीं आप के बकौल, उस वक्त भी हम मुर्तदीन थे, आज भी मुर्तदीन हैं आप के कायदे के मुँह से. तो उस वक्त जब पैसा खा रहे थे उम्रे(?)-पाकिस्तान का, तो क्या वह मुर्तदीन का पैसा नहीं था? उस वक्त क्या मुर्तदीन का पैसा आप पर हलाल था?


तालिबान- मैं यह बात कई बार बयान कर चुका हूँ, अगर आप समझना नहीं चाहते हो इंशाल्लाह कि इसके अलावा जो तरीके हम उन्ही को अपनायेंगे, आप लोगों के अमल उस वक्त इतना वाज़ेह नहीं थे. यह तो हमारे जिहाद के बाद से आप लोगों निक़ाब से पर्दा उठ गया है कि यह इस्लामी जमहूरिया नहीं है, बल्कि यह कुफ़री जमहूरिया पकिस्तान है, यह तो जंग के बाद लोगों के सामने यह बातें वाज़ेह हुई हैं लेकिन यह कहना कि हम पकिस्तान के पैसे खाते रहे हैं, यह तो बिलकुल झूट है, हज़ार फ़ीसद झूट है. बल्कि पाकिस्तानी हुकूमत और पाकिस्तानी हुकुमरान और पाकिस्तानी फ़ौज जो इम्दाद मुजाहिदीन के नाम पर अमरीका से आती थी, उस इम्दाद को पाकिस्तानी हुकूमत खाती थी, पाकिस्तानी हुकुमरान खाते थे, और आप जैसे फ़ौजी जो थे वह खाया करते थे.


फ़ौजी- कल आपने मुझे बात की थी कि पकिस्तान में तिरेसत सालों से शरिअत नाफ़िज़ नहीं है. आप यह बात आज यह बात कर रहे हैं कि हमारी आँखें अभी खुली हैं उस वक्त हमें पता नहीं था आप (????) नहीं था. आप इस बात पर कायम रहें, या तो कहें कि हमें तिरेसत साल से पता था या कहें कि हमें पता नहीं था. कल आपने कहा कि (????) शरिअत नाफ़िज़ नहीं है इस्लाम का मज़ाक उड़ाया जा रहा है. आज आप कह रहे हैं, कि शरिअत नाफ़िज़ है और आप काफ़िर (???).... आप अपने (???) पर कायम रहें न, फिर.


तालिबान- मैं ...यह तुम झूट बोल रहे हो. मैंने तो यह नहीं कहा कि यहाँ इस्लाम नाफ़िज़ था. मैंने यह कहा है कि यहाँ का कुफ़्र जो है छुपा हुआ था हमारे लिए और हम लोग यह बार-बार कह रहे हैं कि उन्नीस सौ सैंतालीस से हमें याद करना चाहिए था लेकिन हमसे ग़लती हुई है और हम अपने गुनाह से तोबा करते हैं. तोबा की शकल यही है जो अब हमने शुरू किया हुआ है. यानि हम मसरूफ़ हैं, जिहाद में, और अपने ग़लतियों की माफ़ी मांगते हैं. यह मैंने कहा है कि पकिस्तान में इस्लाम कभी भी नाफ़िज़ था. यह ग़लत समझ रहे हो या ग़लत तोहमत बाँध(?) रहे हो. लेकिन मैंने यह ज़रूर कहा है कि हम पहले इन बातों की हक़ीकत को मुक्कमल नहीं समझते थे. यह जो उलेमा समझते थे वह बयान नहीं करते थे. उनके अपनी हिकमते और मसलाहते होंगी. लेकिन हम बार-बार इस बात को दोहरा रहें हैं कि उन्नीस सौ सैंतालीस से जिहाद हम पर फ़र्ज़ था लेकिन हमसे ताख़ीर (delay) हुई, हमारे आबाई-इज़्दाक (?) से ताख़ीर हुई. उनसे गुनाह हुआ, हम से भी गुनाह हुआ और इसके लिए अल्लाह के हज़ूर इस्तिग़फ़ार करते हैं.


फ़ौजी- उन्नीस सौ सैंतालीस में अगर आपने तारीख़ पढ़ी है, मुझे नहीं पता आपने कुछ पढ़ाई की है या नहीं की, लेकिन लगता है आपने कुछ पढ़ा होगा, उम्मीद है. तारीख़ यह कहती है कि उन्नीस सौ सैंतालीस में कैद-ए-अज़म वाहिद शख्स था जो पाकिस्तान बनाने के हक़ में था, और जितने मौलाना आज़ाद के मौलवी हज़रात आप जैसे, उन सब ने कैद-ए-अज़म काफ़िर कहा था कि यह अलग मुल्क बनाकर कुफ़्र कर रहा है. जैसे ही यह मुल्क बन गया तो आप लोग उनके ठेकेदार भी बन गए. कल आपने मुफ़ाफ़त (?) के मुल्क के पन्ने की (difficult to hear over taliban clearing his throat) जब मुल्क बन गया तो आप लोग इसके ठेकेदार भी बन गए. यह क्या माजरा है?


तालिबान- हम हज़रत वाला पहले भी कैद-ए-अज़म को काफ़िर समझते थे और अब भी कैद-ए-अज़म को हम काफ़िर-ए-अज़म समझते हैं और उसको कद्दू-ए-अज़म समझते हैं. वह भी उसी तरह का एक आदमी था जिस तरह कि अफ़गानिस्तान में करज़ई वगैरा बैठे हुए हैं. और जिन उलेमा ने उनकी हिमायत की थी हम उन्हें ग़लती पर समझते हैं, और उनकी ग़लती की बार-बार मैं बात यह कह रहा हूँ कि उनकी ग़लती की वजह से हम भी ग़लती के शिकार हुए. और हम अपने इस ग़लती पर तौबा करते हैं, और अल्लाह से इस्तिग़फ़ार करते हैं.


फ़ौजी- आप नौज़िला(?) उस कैद-ए-अज़म को, जो कि मुअज्ज़िन (?) हैं हमारा जिसने पाकिस्तान बना के दिया उसके ख़िलाफ़ अगर आप यह उल्टी-सीधी बात कर रहे हैं, तो उसी के बनाए हुए मुल्क में हराम खा रहे हैं फिर आप लोग कि उसी हुकुमत का पैसा भी खा रहे हैं, उसी हुकुमत की आप रोटी भी खा रहे सब कुछ उसी मुल्क में रहके. तो इसको तो फिर बन्दा क्या कहे. इसको सिर्फ़ यही कह सकता है कि बन्दा यह फिर वह हराम खाने वाली बात कि उस मुल्क में रहके फिर उसी की जड़े काट रहे हैं फिर.


तालिबान- यह तो तुम्हारी वह फ़िक्रें हैं जो तुम्हे सेकुलर (secular) स्कूलों में पढ़ाई जाती हैं. हम अल्हम्दुलिलाह कैद-ए-अज़म को काफ़िर समझते हैं. वह एक इस्मैली शिया था और उसके बाप का नाम पता नहीं पिंजू क्या नाम था, पूंजा सेठ. पूंजा किसी मुसलमान नाम नहीं होता है. यह इस्मैली शिया था. यह काफ़िर था, और यह मुसलमान नहीं था. रही यह बात कि हम पाकिस्तान में हराम खा रहे हैं, ये-वो, {amused} यह उसके बाप का पकिस्तान था यह? उसके बाप ने बनाया था? यह तो पाकिस्तान हमारा मुल्क है, हम अपने मुल्क में अपने मर्ज़ी का निज़ाम चाहते हैं, अल्लाह का निज़ाम चाहते हैं. तो यह कौनसी ग़लती हुई है? अजीब बात तुम करते हो, अगर कोई दलील से बात कर सकते हो तो ठीक है.


फ़ौजी- (पाकिस्तान) बनाया उसको आप कह रहे हो कि वह ग़लत पैदा नौज़िल्ला (?) काफ़िर था? और जिस मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, उनका नाम अबुल कलाम आज़ाद आपने सुना होगा, बड़ा मशहूर मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, पकिस्तान पर उसने कदम नहीं रखा यह कहके कि यह नौज़ुबिल्लाह(nauzubillah) काफ़िर ने बनाया हुआ मुल्क है, मैं इस मुल्क में कभी नहीं आऊंगा, यह कहके उस मुल्क में नहीं आया. आप कह रहे हो कि वह ठीक था, अबुल कलाम आज़ाद, और यह मुल्क के ठेकेदार भी साथ बन रहे हो.


और दूसरा आप कह रहे हो कि कैद-ए-अज़म के वालिद का नाम पूंजा जिन्नाह था तो वह काफ़िर था नौज़ुबिल्लाह. क्या इस्लाम के आमद से पहले तक़रीबन नब्बे से पच्नावे फ़ीसद साहिबा-कराम के वालिदीन काफ़िर नहीं थे? नहीं थे तो बताएँ - एक-एक - कितने साहिबा थे जिनके जो है वालिदीन काफ़िर थे?


तालिबान- ठीक है, तो इस्लाम के आमद से पहले ही यह पूंजा जिन्नाह भी काफ़िर था, उसका बेटा भी काफ़िर था.


फ़ौजी- अच्छा, तुम नौज़ुबिल्लाह (???) साहिबा के बारे में क्या कहेंगे जो इस्लाम लाने के बाद इस्लाम कबूल कर गए थे? इसी तरह कैद-ए-अज़म के वंश का नाम अगर पुंज जिन्नाह था, उनका अपना पूरा नाम मुहम्मद अली जिन्नाह था, मुहम्मद अली जिन्नाह था, ठीक है.


तालिबान- इसीलिए तो मैं कह रहा हूँ कि इस्मैली था, शिया था. और शियों के नाम इसी तरह होते हैं, अली होते हैं, हुसैन होते हैं, हसन होते हैं, लेकिन हम शियों को काफ़िर समझते हैं, अल्हम्दुलिलाह, इसीलिए कि सहाबा को यह गालियाँ देते हैं, अली को ख़ुदाई का दर्जा देते हैं. अगर (?) सहाबा हमारे लिए काबिल-ए-एहितराम है. लेकिन, मुहम्मद अली जिन्नाह नाम की वजह से यह काफ़िर नहीं है, अपने काम की वजह से यह काफ़िर है. मैं यह कह रहा हूँ कि इस्मैली था, शिया था और काफ़िर है.


फ़ौजी- चलो, छोड़ दे कैद-ए-अज़म को, मैं यह पूंछता हूँ कि जो..


तालिबान- नहीं, नहीं छोड़ दो यह (फौजी: कि जो बच..) तो तुम्हारा अपना है, क्यों छोड़ता है यार? {हँसी} (फ़ौजी:...हम नहीं मारते, ब्लाकवाटर (Blackwater) वाले करते हैं)


फ़ौजी- लेकिन आज के जो बड़े लीडर (leader) हैं लीडर साहिबान वह बड़े जो है सीना तान (foreground:...दस दुआ होते हैं... whisper) के टीवी (TV) पर बयान जारी करा देते हैं कि हमने तहरीक-ए-तालिबान-पकिस्तान लाहौर में मून मार्केट (Moon market) में धमाके की ज़िम्मेदारी कबूल कर दी है, तहरीक-ए-तालिबान-पकिस्तान कामरान में स्कूल के बच्चों की (?) को कबूल करती है. क्या आप लोग यह धमाके करते हैं?


तालिबान- कामरान के धमाके की ज़िम्मेदारी अल्हम्दुलिला हम कबूल करते हैं इसीलिए कि वह फ़ौजियों का स्कूल है और अगर उसमे बच्चे-मच्चे मरे गए हैं, तो ज़ाहिर है, बड़ों को मारते वक्त बच्चे भी मारे जाते हैं. और इससे पाहिले मैं उसूले-फ़िक़ कानून बता चूका हूँ कि हदफ़ असल होता है, नियत का ऐतबार होता है, वरना तो जंग करने की कहीं भी ज़रुरत नहीं है, रसूल्लाह-सल्लला-वालि-वसल्लम कामिल अगर आप लोगों के लिए हुज्जत और दलील है तो आप सल्लला-वालि-वसल्लम ने ग़जवत-उ-तायिफ़ में पुरे इलाके पर पानी छोड़ दिया था और मंजनिया (?) उनके ऊपर फ़िटकी थी, ज़ाहिर सी बात है वहाँ बच्चे भी मरे गए हैं, औरतें भी मारी गयी हैं और इसी तरह साद-बिन-जतामा-रज़िउल्लाह-तालानाहू की हदीसे जिसमे रसूलल्लाह सल्लाली-वालि-वसल्लम ने यह इरशाद फ़रमाया है, कि फुलाम कबीले पर जाओ और उन पर शभहून (?) मारो तो सहाबा ने कहा कि यार रासुल्लाह "वफ़िहीम निसहुम वररारी हिम" कि उसमे तो उनके औरते हैं, उनके बच्चे हैं, तो रसूलल्लाह सल्लाली-वालि-वसल्लम ने फ़रमाया "हूम मिन हूम" कि वो भी उन्ही मे से है. इसीलिए कामरान में जो हमने काम किया है उस पर हम फ़क्र करते हैं कि हमने फौजियों के स्कूलों को तबाह किया है. लेकिन मार्केट की जो बातें आप बार बार दोहराते हो, यह हो सकता है कि आप ख़ुद ही ज़िम्मेदारी कबूल कर लें इसकी, इसलिए कि तहरीक-इ-तालिबान-पाकिस्तान ने और इसकी मरकज़ी तर्जुमान ने बाकायदा इसकी तर्दीद की है. और बाकायदा इसके सिलसिले में हमने हर तरफ़ पम्फलेट (pamphlet) भी शाया किये हैं.


फ़ौजी- आप ने यह बात कबूल की थी कि कामरान में जो स्कूल के बच्चों पर आपने हमला किया, उस पर आप को फ़क्र है?


तालिबान- जो मैं हदीसें बयान कर रहा हूँ वह आपको मस्त्नद(?)(masnad?) नहीं मालूम होती?


फ़ौजी- जो मैं बयान कर रहा हूँ, आपको, आप यह समझते हैं कि आज अगर हज़ूरे-पाक ज़िंदा होते, जो कि आप के मालिक देख रहे होंगे (several words missed) दिखा रहा है कि आप उम्मत यह कर रही है. आप के ख़याल में जब आप औरतों और बच्चों को मारते हैं तो हज़ूर-पाक तप-तप (?) आपके पीट तपाते कहते नौज़ुबिल्लाह! बड़ा अच्छा काम किया तुमने! कि जिसको रहमत-उल-लिल-आलमीन कहा गया कि वह आलमीन के लिए रहमत है; जिस नभी पर तायिफ़ के अन्दर लोगों ने पत्थर मार-मार के जूते पर खून से भर दिये, अल्लाह-ताला ने कहा कि नभी, तुम हुकुम करो तो मैं इस तायिफ़ की बस्ती के ऊपर जो पहाड़ उल्टा दूँ. तो आप ने कहा नहीं, आप का यह रहम था कि इसमें औरतें और बच्चे हैं. यह है कि नहीं है इसमें औरतें और बच्चें भी हैं जो मारे जायेंगे. आपने अल्लाह-ताला से दुआ की कि उनको हिदायत दें, बजाय इसको तमाम(?) बर्बाद करने के. रहमत-उल-लिल-आलमीन नभी के बारे में आप यह बातें कर रहें हैं कि उन्होंने इस तरह-तरह के हुकम दिये हैं? और आप कहते हैं कि वह आपके इन (?) पर खुश होते हैं कि आपने औरतों और बच्चों को मारा? तो में समझता हूँ कि आप बड़ी सक्त गुनाही में पड़े हुए हैं. (Taif Hadith)


तालिबान- तो आप यह कहना चाहते हैं कि जो हदीस मैं बयान कर रहाँ हूँ यह अपनी तरफ़ से बयान कर रहा हूँ? जंग-ए-तायिफ़ का वाक्याब आप को बयान कर रहा हूँ. साद-बिन-जसामार्ज़िलानु(?) की रिवायत आपको बयान कर रहा हूँ, मैं अपनी तरफ़ से बयान कर रहा हूँ. जो आप अभी बातें बयान कर रहे हैं, तायिफ़ का वाक्याब बयान कर रहे हैं, यह तो दावत का काम है. यह तो जंग से मुत'अल्लिक नहीं है. जंग का काम अलग होते हैं और आम हालात के काम अलग होते हैं. आप को शायद इन बातों का इल्म नहीं है, इसलिए आप ग़लती में मुख्तल हो रहे हैं. वरना आम हालात अलग होते हैं, और जंग के हालात अलग होते हैं. इसलिए रसुल्लुलाह-सलाल्ला-वालि-उ-वसल्लम ने औरतों और बच्चों के क़त्ल से मना फरमाया है! लेकिन वो औरतें, वो बच्चे जिनके क़त्ल किये बग़ैर काररवाई न हो सके उनके सिलसिले में रसुल्लुलाह-सलाल्ला-वालि-उ-वसल्लम यह फ़रमा रहे हैं, साद-बिन-जसामार्ज़िलानु की यह रिवायत भुखारी में मौजूद है, मुस्लिम में मौजूद है, जिसमे वो यह फ़रमा रहे हैं कि अगर मुश्रीकीन और मुश्रीकीन के बच्चे और औरतें उसमे मारे जाएँ तो कोई बात नहीं, "हुम-मिन-हुम" वो उन्ही में से हैं. यह हदीस रसुल्लुलाह-सलाल्ला-वालि-उ-वसल्लम की हदीस है. और मंजनिया(?) काफ़(?) ने तायिफ़ में लगाई तो ज़ाहिर सी बात है कि इसमें औरतें और बच्चे हर किस्म के लोग क़त्ल हुए हैं. तो आप क्या कहते हैं कि रसुल्लुलाह-सलाल्ला-वालि-उ-वसल्लम से ज्य़ादा समझदार हो गए हो आप?


फ़ौजी- जिस बस्ती का आप ज़िक्र कर रहे हैं उसको चारों तरफ़ से हज़ूरे-पाक ने घेरा था. एक हफ़्ते तक वहाँ घेरे में रखा. उसके बाद हज़ूरे-पाक ने हुक्म दिया कि {तायिफ़ पढ़े हैं, आप दूसरों को भी पढ़ाएं unclear } बड़ी मेहरबानी {ज़िब्र?} मत करें. {unclear वक्त आ गुज़रा?} हुज़ूर-पाक ने हुकम दिया कि हमने इसको चारों तरफ़ से हमने घेरा हुआ है, इस घेरे को ख़तम करो, और घेरे को ख़तम करके एक हफ़्ते के बाद आप तब तक (?) घर में वापस (....). है कि नहीं इस तरह? (Wiki: siege of Taif)


तालिबान- रसुल्लुलाह-सलाल्ला-वालि-उ-वसल्लम ने मंजनिया फ़िट की थी बाक़ायदा वज़वा-ए-तायिफ़ में और ग़ज़्वा-ए-तायिफ़ में आप सलाल्ला-वालि-उ-वसल्लम उनके बाग़ात में पानी छोड़ा था और आप सलाल्ला-वालि-उ-वसल्लम ने उनके साथ यह माम्लात किये थे. तो आप कौनसी तारिख़ की बात करते हैं? कोई तारिख़ सीरत की क़िताब आप के पास मौजूद है तो आप, आप खोल कर देख लें उसको.


फ़ौजी- ...... एक और हदीस मैं आपको सुनाता हूँ. (29:15 of 35:36)

[1] Wiki has the story of Masjid al-Dirar :
In the main account narrated by the majority of scholars, the mosque was built by twelve disaffected men from the Ansar on the commands of Abu 'Amir al-Rahib; a Christian monk who refused Muhammad's invitation to Islam and instead fought along with the Meccan non-Muslims against Islam in the Battle of Uhud ......

Muhammad prepared himself to go to the Mosque, before he was prevented by a revelation about the hypocrisy and ill design of the builders of the Mosque

Muhammad and his companions believed they were Hypocrites (munafiqs) and had ulterior motives for building the Al-Dirar mosque. Thus he ordered his men to burn it down.

According to the Islamic tradition, Muhammad was asked to lead prayer there but received a revelation (mentioned in the Qur'anic verses 9:107 and 9:110) in consequence of which the mosque was destroyed by fire. Henceforth, it was known as the Mosque of Opposition.

[2] The phrase “muttafaq `alayh” literally means “agreed upon”.
Among scholars of hadîth, the term is used to indicate those hadîth that are found in both Sahîh al-Bukhârî and Sahîh Muslim as related by a single Companion.

If the hadîth is related in Sahîh al-Bukhârî by a different Companion than the one who relates it in Sahîh Muslim, then the hadîth will not be referred to as “muttafaq `alayh”.

[3]Wiki
The acts of a Muslim must be done according to Islamic commandments, categorized in five groups, forming a pentad or al-hukm al-khamis (Arabic: الاحكام الخمسة‎). They show how Performing or abstaining from certain actions can be categorized as being obligatory or recommended in Islamic law. According to Islamic terminology the pentad consists of:
1. Wajib, obligatory; also known as: fard, rukn
2. Mustahabb / Sunnah, recommended, also known as fadilah, mandub
3. Mubah, neither obligatory nor recommended (neutral)
4. Makruh, abominable (abstaining is recommended)
5. Haraam, prohibited (abstaining is obligatory)

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